Thursday, July 17, 2014

Joshi Effect & Laser Optogalvanic Spectroscopy

                                         प्रोफेसर श्रीधर सर्वोत्तम जोशी का ‘जोशी प्रभाव’ 

                                                            सूर्य नारायण ठाकुर
                                             भौतिकी विभाग   काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

महामना पं मदन मोहन मालवीय जी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना शिक्षा के एक सर्वश्रेष्ठ केन्द्र के रूप में किया था तथा इस उदेश्य की पूर्ति के लिये वे सतत प्रयत्नशील रहते थे।शिक्षक के रूप मे प्रतिष्ठित करने के लिये वे उस समय के सर्वश्रेष्ठ विद्वानो से सम्पर्क स्थापित करते तथा उन्हे राष्ट्रहित में अपने विश्वविद्यालय में आने का अनुग्रह करते।मालवीय जी की आभा एवं लगन से प्रभावित होकर अत्यंत प्रतिभाशाली विद्वान अन्य सुविधासंपन्न संस्थानो की विलाशपूर्ण सेवा करने की अपेक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मालवीय जी के सपनो को साकार करने मे अपने को धन्य समझते थे।विज्ञान के क्षेत्र मे प्रतिभाशाली भारतीय युवक एवं युवतियां बीसवीं सदी के चौथे दशक तक उच्च शिक्षा के लिये यूरोप और विशेष रूप से इंगलैंड जाते थे जहां से वापस आते ही उन्हे विभिन्न प्रकार के सरकारी संस्थानो में उच्च पद मिल जाया करते थे।मालवीय जी अपने सूचना सूत्रों से प्राप्त जानकारी के आधार पर ऐसे प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों के भारत पहुॅचने पर सम्पर्क करने वाले प्रथम व्यक्ति होते थे।
डाक्टर शान्ति स्वरूप भटनागर जब 1921 मे यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन से रसायन विज्ञान मे डी .एस सी .की डिग्री प्राप्त करने के बाद भारत लौटे तो उन्होने मालवीय जी के आग्रह को सहर्ष स्वीकार करते हुये उस समय के सेन्ट्रल हिन्दू कालेज मे रसायन विज्ञान के प्रोफेसर के पद को गौरवान्वित किया। प्रोफेसर भटनागर को रसायन विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट जानकारी थी तथा चुम्बकीय रसायन फोटो रसायन एवं कोलायड के क्षेत्र में वे विश्व के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों मे से एक थे।अपने 1921 से 1923 के कार्यकाल के दौरान प्रोफेसर भटनागर ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को बहुत कुछ दिया।विश्वविद्यालय के कुलगीत ‘मधुर मनोहर अतीव सुन्दर यह सर्व विद्या की राजधानी’ की रचना से लेकर विज्ञान के विविध विषयों में रीसर्च की परम्परा प्रोफेसर भटनागर की ही देन है।रसायन विज्ञान तो उच्च शिक्षा एवं रीसर्च के क्षेत्र में भारत के विश्वविद्यालयों की अगली कतार मे आ खडा. हुआ।
        श्रीधर सर्वोत्तम जोशी ने 1921 में फर्गुसन कालेज पुणे से बी .एस सी .की परीक्षा उत्तीर्ण की थी जो उस समय बम्बई विश्वविद्यालय के अन्तर्गत था। प्रोफेसर भटनागर की प्रसिद्धि से प्रभावित युवा जोशी ने एम .एससी .की उच्च शिक्षा के लिये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे अपना नामांकन कराया तथा शीघ्र ही अपनी प्रायोगिक प्रतिभा से अपने शिक्षकों के प्रिय पात्र बन गये।1923 मे एम .एस सी .की परीक्षा उत्तीर्ण करते करते युवा जोशी की प्रसिद्धि मालवीय जी तक पहॅुची और उन्होने इस प्रतिभाशाली छात्र से अपने विश्वविद्यालय में शिक्षक बनने का वचन ले लिया।जब डाक्टर जोशी 1928 में यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन से रसायन विज्ञान मे डी .एस सी .की डिग्री प्राप्त करने के बाद भारत लौटे तो मालवीय जी ने उन्हे रसायन विज्ञान के प्रोफेसर पद पर आसीन कर दिया तथा प्रोफेसर जोशी विश्वविद्यालय की गरिमा में लगातार वृद्धि करते हुये 1959 तक इस पद को सुशोभित करते रहे।विज्ञान की शिक्षा देने वाले विभागों में विद्यार्थियों की संख्या में लगातार वृद्धि को देखते हुये विश्वविद्यालय प्रशासन ने 1935 में साइंस कालेज की स्थापना की।प्रोफेसर जोशी ने 1938 मे साइंस कालेज के तीसरे प्रिंसिपल के रूप मे विश्वविद्यालय मे विज्ञान के शिक्षण एवं रीसर्च के दिशा निर्देशन का गुरूतर कार्यभार संभाला तथा अपने रिटायरमेंट तक इसका सफलता पूर्वक संचालन करते रहे।प्रिंसिपल के रूप में उन्होने साइंस कालेज के विभिन्न विभागों में उत्कृष्ट शिक्षण के लिए प्रयोगशालाओं को अत्याधुनिक सुविधा से संपन्न कराने के साथ रीसर्च प्रयोगशालाओं की स्थापना करने का अति महत्वपूर्ण कार्य किया।प्र्रिंसिपल जोशी ने 1939 में डाक्टर असुन्डी का भौतिकी के प्रोफेसर पद पर चुनाव कर स्पेक्ट्रोस्कोपी प्रयोगशाला की स्थापना की जो इस वर्ष  अणु परमाणु एवं लेजर के उत्कृष्ट केन्द्र के रूप में अपनी हीरक जयन्ती मना रहा है।  1940 के दशक में स्पेक्ट्रोस्कोपी के कई शोध कत्र्ताओं ने प्रकाश द्वारा अणुओं पर अनुसंधान में ‘जोशी प्रभाव’ का प्रयोग किया।1970 के दशक में विभिन्न तरंगदैघ्र्य के प्रकाश उत्पन्न करने वाले लेजर स्त्रोत के विकास के बाद ‘जोशी प्रभाव’ का उपयोग लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी के रूप में बहुत प्रभावशाली रहा है।इस लेख में हम प्रोफेसर जोशी के रीसर्च एवं व्यक्तित्व के साथ ही आधुनिक समय में लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे।
 
                                               प्रोफेसर श्रीधर सर्वोत्तम जोशी 1898  1984

विद्युत धारा एवं जोशी प्रभाव

जोशी प्रभाव या जोशी इफेक्ट गैस मे विद्युत धारा के प्रवाह से संबंधित है अतः इसे समझने के लिये बिजली की खोज एवं उपयोग के बारे मे कुछ मूलभूत जानकारी रखना जरूरी है।बहुत प्राचीन समय से लोग बादलों की गड़गड़ाहट के बीच आकाशीय बिजली की चमक से भलीभांति परिचित थे।आकाशीय बिजली के पृथ्वी की सतह के संपर्क मे आने पर जीव तथा बनस्पति के जल जाने का खतरा रहता है।इस प्रकार आम आदमी के लिये विद्युत एक दैवी शक्ति या आपदा के रूप मे डर उत्पन्न करने वाली चीज थी।लोग इस बात से भी परिचित थे कि शीशे की छड़ को या सर के बालों को सिल्क के टुकड़े से रगड़ने पर शीशे की छड़ तथा सर के बाल विद्युत से आवेशित हो जाते हैं।सर के बालों को सिल्क से रगड़ने के दौरान स्पार्क की सी चमक दिखायी पड़ती है तथा शीशे की छड़ छोटे छोटे कागज के टुकड़ों को आकर्षित करने लगती है।इस प्रकार की विद्युत को स्थिर विद्युत का नाम दिया गया मगर आकाशीय विद्युत से इसके सम्बन्ध के बारे मे कोई जानकारी नही थी।
18 वीं सदी के आरम्भ मे फ्रॉस तथा अमेरिका के कुछ जिज्ञासु लोगों ने आकाशीय विद्युत के बारे मे जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रयोग करना शुरू किया था।इस कड़ी मे अमेरिका के बेन्जामिन फ्रैंकलिन का नाम सर्व प्रमुख है। बेन्जामिन फ्रैंकलिन का जन्म सन 1706 मे हुआ था तथा वे अपने समय के सर्वाधिक प्रसिद्व अमेरिकन एवं दुनिया  के  सर्वकालीन महान विभूतियों मे से एक हैं।वे पेशे से प्रिन्टर थे तथा प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने वाले वैज्ञानिक के रूप मे उन्होने अपनी पहचान बनायी थी।उन्होने न केवल सॅयुक्त राज्य अमेरिका को एक राष्ट्र के रूप मे स्थापित करने मे अहम भूमिका निभाई बल्कि वहॉ के निवासियों मे एक नई विचारधारा एवं कार्यपद्वति का भी विकास किया जिसकी वजह से अमेरिका आज एक अत्यन्त समृद्ध राष्ट्र है। बेन्जामिन फ्रैंकलिन ने वेैज्ञानिक शोध द्वारा मानव जीवन के लिये उपयोगी एवं कल्याणकारी उपकरणो के निर्माण की परम्परा की नींव डाली जिसे थामस एडिसन एवं ग्राहम बेल ने आगे बढ़या तथा आज के अमेरिकन वैज्ञानिक भी उसी परम्परा का अनुसरण करते दिखाई देते हैं।जून 1752 मे बेन्जामिन फ्रैंकलिन ने अपने 21 वर्षीय पुत्र कीे सहायता से प्रयोग करके सिल्क की बनी हुई पतंग को उड़ाते हुये बादलों के सम्पर्क मे लाकर आकाशीय विद्युत को अपनी प्रयोगशाला के उपकरणों मे एकत्र किया।उन्होने अपने शोध के द्वारा न केवल आकाशीय विद्युत और स्थिर विद्युत की एकरूपता की पहचान की बल्कि यह सत्य भी स्थापित किया कि आकाशीय विद्युत को विद्युत धारा के रूप मे बादलों से जमीन पर लया जा सकता है।
विद्युत धारा पर सर्वाधिक प्रयोग करने तथा मानव जीवन मे बिजली के उपयोग के लिये जिम्मेदार अगर किसी एक वैज्ञानिक का नाम लेना हो तो वह होंगे माइकेल फैराडे।1791 मे जन्मे माइकेल की स्कूली शिक्षा गरीबी की वजह से अधूरी रही मगर 14 वर्ष की उम्र मे बुक बाइन्डर सहायक के रूप मे काम करते हुए उन्होने स्वाध्याय द्वारा अपना ज्ञान वद्र्धन किया।इसी दौरान वे उस समय के महान रसायन विज्ञानी हम्फ्रे डेवी के सम्पर्क मे आये जिनके साथ काम करते हुए उनकी पहचान एक रसायन वैज्ञानिक के रूप मे हुई।वास्तव मे माइकेल फैराडे एक प्रकृति विज्ञानी अथवा नेचुरल फिलासफर थे तथा विज्ञान के अब तक के इतिहास मे वे अकेले सबसे अधिक प्रयोग सम्पादित करने वाले वैज्ञानिक हुए हैं।विद्युत धारा के रासायनिक प्रभावों के अलावा उन्होने विद्युत के चुम्बकीय प्रभावों का गहन अध्ययन किया जिसके आधार पर डाइनेमो ट्रांसफार्मर तथा विद्युत मोटर के आविष्कार संभव हुए।सन 1831 से 1835 के बीच फैराडे ने अतिशय निम्न दाब पर शीशे की नलिका मे स्थित वायु मे बिजली के प्रवाह का अध्ययन किया।इन प्रयोगों के लिये बन्द तथा निर्वातित नलिका के भीतर दोनो किनारों पर धातु के इलेक्ट्रोड लगे थे जिनके बीच 1000 वोल्ट तक का विद्युत विभव लगाया जा सकता था।शीशे की नलिका मे स्थित वायु से विद्युत प्रवाहित होने पर काली पट्टी जैसे क्षेत्रों द्वारा अलग किये हुए विभिन्न लम्बाई के प्रकाशित क्षेत्र नलिका की पूरी लम्बाई मे फैल जाते थे जिनका आकार तथा चमक वायु के दाब पर निर्भर होते थे।फैराडे ने गैस नली से उत्सर्जित प्रकाश का नामकरण ग्लो डिस्चार्ज किया तथा यह पाया कि गैस का दाब क्रमशः कम करने पर प्रकाश निकलना बन्द हो जाता है मगर विद्युत धारा फिर भी प्रवाहित होती रहती है।इस स्थिति का नामकरण उन्होने ‘अदीप्त धारा’ किया।1858 मे प्लकर ने 0 .01 मिलिमीटर पारे के दाब पर कैथोड किरणो को निकलते देखा जो शीशे की नलिका की दीवार पर पड़ने के बाद हरे रंग का प्रकाश उत्पन्न करती थीं।बाद के प्रयोगों से यह पता चला कि डिस्चार्ज नलिका मे कोई भी गैस भरने पर एक ही प्रकार की कैथोड किरणें निकलती हैं तथा 1891 मे स्टोनी ने इन किरणों की पहचान ऋण आवेशित विद्युत कणों के रूप मे किया और इस कण का नाम इलेक्ट्रान रखा।1897 मे जोसेफ जान थामसन ने इलेक्ट्रान के आवेश एवं द्रव्यमान का विस्तृत अध्ययन कर यह सिद्ध किया कि सभी तत्वों के परमाणु की संरचना का इलेक्ट्रान एक मूल कण है जिसके लिये उन्हे 1906 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बीसवीं सदी के प्रथम चार दशकों तक डिस्चार्ज नलिकाओं का प्रयोग विभिन्न प्रकार के परमाणुओं एवं अणुओं के स्पेक्ट्रम प्राप्त करने तथा उनके द्वारा संचालित विद्युत धारा के अध्ययन के लिये किया जाता रहा।इसी क्रम मे प्रोफेसर जोशी ने 1929 से 1943 के बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे किये गये प्रयोगों के आधार पर जोशी इफेक्ट का प्रतिपादन किया जिसे निम्नलिखित रूप मे व्यक्त किया जा सकता हैः
“जब किसी डिस्चार्ज नलिका पर बाहरी प्रकाश डाला जाता है तो उसमे प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा मे धनात्मक अथवा ऋणात्मक परिवर्तन हो जाता है।”

प्रोफेसर जोशी की प्रयोगशाला

लन्दन मे अपने डी .एस सी .शोध के दौरान प्रोफेसर जोशी ने डिस्चार्ज नलिकाओं का प्रयोग गैसिय अवस्था मे सम्पन्न होने वाली रासायनिक क्रियाओं का अध्ययन करने के लिये किया था।उन्होने विशेष रूप से नीरव या साइलेंट विद्युत डिस्चार्ज द्वारा नाइट्रस आक्साइड के विघटन का विस्तृत अध्ययन किया तथा अपने प्रयोगों के परिणाम 1927 से 1929 के बीच ट्रांजैक्सन्स फैराडे सोसायटी के करीब आधे दर्जन शोध पत्रो मे प्रकाशित किया।इसमे रासयनिक क्रिया की गति तथा उस पर बाह्य गैसों के प्रभाव के अलावा रासायनिक क्रिया के दौरान विद्युत धारा मे हुये परिवर्तन के बारे मे भी अति महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की गयी थी।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे अपने आगमन के साथ ही प्रोफेसर जोशी ने रसायन विभाग मे यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन की तर्ज पर प्रयोगशाला स्थापित करना शुरू कर दिया था।प्रोफेसर जोशी ने लन्दन मे गैसिय अवस्था मे रासायनिक क्रियाओं का अध्ययन करने के लिए डिस्चार्ज नलिका का उपयोग किया था।उनमे से एक रासायनिक क्रिया मे हाइड्रोजन तथा क्लोरीन गैसों के संयोग से हाइड्रोजन क्लोराइड गैस बनने की गति का अध्ययन भी शामिल था।जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की अपनी प्रयोगशाला मे उन्होने इस अनुसंधान को जारी रखने की मंशा अपने वरिष्ठ सहयोगियों के समक्ष रखी तो बहुतेरे लोगों ने ऐसा न करने की सलाह दिया।इसका कारण हाइड्रोजन तथा क्लोरीन गैसों का प्रकाश की उपस्थिति मे विस्फोटक होना था।अगर प्रकाश के साथ साथ विद्युत की भी उपस्थिति हो तो इस रासायनिक क्रिया मे विस्फोट होने की संभावना अधिक बढ़ जाती है। प्रोफेसर जोशी को प्रयोग करने की अपनी क्षमता एवं कुशलता पर इतना विश्वास था कि अपने वैज्ञानिक मित्रों की नेक सलाह के बावजूद उन्होने उपरोक्त अनुसंधान को आगे बढ़ाने का फैसला किया।रासायनिक क्रियाः  H2 +  Cl2 → 2HCl   जब होने लगती है तो डिस्चार्ज नलिका मे अधिक इलेक्ट्रान बन्धुता वाली Cl2 की जगह कम इलेक्ट्रान बन्धुता वाली HCl  की प्रचुरता बढ़ जाती है।इस जानकारी के अनुसार रासायनिक क्रिया प्रारम्भ होने से पहले की अपेक्षा बाद मे डिस्चार्ज नलिका के भीतर इलेक्ट्रान की प्रचुरता बढ़ने से उसकी विद्युत धारा मे बढ़ोतरी होनी चाहिये।इसके विपरीत विद्युत धारा के मान मे कमी दर्ज की गयी तथा डिस्चार्ज के भीतर अति क्षीण तीव्रता का लाल प्रकाश दिखाई पड़ा।इस अध्ययन द्वारा किसी निश्चित निष्कर्ष तक पहॅुचने के लिए शुद्ध क्लोरीन गैस मे विद्युत धारा प्रवाहित कर डिस्चार्ज उत्पन्न किया गया तथा नलिका पर बाहर से प्रकाश डाला गया।बाह्य प्रकाश के पड़ते ही डिस्चार्ज नलिका मे विद्युत धारा कम हो गयी तथा प्रकाश की तीव्रता बढ़ाने पर एक ऐसी स्थिति आयी कि विद्युत धारा शून्य हो गयी।जब बाह्य प्रकाश बन्द कर दिया गया तो विद्युत धारा पूर्ववत अंधेरी अवस्था के बराबर हो गयी।इस प्रयोग से यह सिद्ध हो गया कि अंधेरी हालत मे डिस्चार्ज नलिका मे प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा बाह्य प्रकाश की एक खास तीव्रता होने पर शून्य हो जाती है।जोशी प्रभाव की ऋणात्मक Δi  की इस खोज ने उस समय के भारतीय वैज्ञानिक जगत मे काफी हलचल मचायी। प्रोफेसर जोशी ने करीब दस वर्ष के अनवरत परिश्रम के बाद बहुत विचार विमर्श के बाद अपने अनुसन्धान के परिणाम 1939 मे एक संक्षिप्त पत्र के रूप में [1] तथा एक वर्ष बाद पूरे विवरण के साथ [2] भारत के अग्रगण्य जर्नल करेन्ट साइन्स मे प्रकाशित किया।भारतीय वैज्ञानिकों के समक्ष उन्होने 1943 की भारतीय साइन्स कॉग्रेस अधिवेशन मे रसायन विज्ञान के अध्यक्ष पद से बोलते हुये जोशी प्रभाव का वर्णन किया था।प्रोफेसर जोशी ने बाह्य प्रकाश द्वारा डिस्चार्ज नलिका मे विद्युत धारा के घटाव की निम्नलिखित त्रिस्तरीय विवेचना प्रस्तुत की थीः
डिस्चार्ज की दशा मे शीशे की नलिका की सतह पर उत्तेजित अवस्था के परमाणु आयन एवं इलेक्ट्रानो की एक तह जम जाती है।
शीशे की सतह पर जमी क्रियाशील या एक्टिव तह द्वारा उत्सर्जित इलेक्ट्रानो की वजह से Δi धनात्मक होती है।
डिस्चार्ज नलिका मे उपस्थित अधिक इलेक्ट्रान बन्धुता के अणुओं एवं परमाणुओं द्वारा स्वतंत्र इलेक्ट्रानो को पकड़ लिये जाने से Δi  ऋणात्मक होती है।

जोशी प्रभाव में विद्युत धारा का मापन

प्रोफेसर जोशी द्वारा प्रयुक्त विभिन्न प्रकार की डिस्चार्ज नलिकायें चित्र 1 मे प्रदर्शित की गयीं हैं।चित्र 1A मे अंग्रेजी अक्षर यू के आकार की सीमेन्स कम्पनी की ओजोनाइजर डिस्चार्ज नलिका मे दोनो इलेक्ट्रोड नलिका के बाहर हैं जबकि चित्र 1B  की बेलनाकार गीगर मूलर काउन्टर मे प्रयुक्त होने वाली नलिका मे एक इलेक्ट्रोड नलिका के अन्दर लगा है। चित्र 1C मे एक अन्य डिजाइन की बाह्य इलेक्ट्रोड वाली नलिका दिखाई गयी है तथा चित्र 1D मे गिसलर डिस्चार्ज नलिका प्रदर्शित है जिसमे धातु के समान्तर पट्टिका वाले आन्तरिक इलेक्ट्रोड लगे हैं।इन सभी डिस्चार्ज नलिकाओं की विशेषता है कि कम दाब की गैस भरने के बाद इन्हे सील कर दिया गया है।इनके अतिरिक्त ऐसी डिस्चार्ज नलिकायें भी प्रयुक्त की जाती थीं जिनको निर्वात उत्पन्न करने वाले पम्प से जोड़ कर रखा जाता था जिसमे गैस का दाब इच्छानुसार कम या अधिक किया जा सकता था।

                   चित्र 1 जोशी प्रभाव के अध्ययन मे प्रयुक्त विभिन्न प्रकार की डिस्चार्ज नलिकायें

                 
                               चित्र 2  जोशी प्रभाव के लिये विद्युत धारा मापन की तीन विधियां

         जोशी प्रभाव के अध्ययन के लिये तीन प्रकार से मापन किये जाते थे जिन्हे समन्वित रूप मे चित्र 2 द्वारा प्रदर्शित किया गया है।काउन्टर द्वारा मापन के लिए विद्युत धारा का मार्ग α से हो कर जाता है जबकि गैल्वानोमीटर द्वारा मापन के लिये यह मार्ग β से तथा आसिलोस्कोप द्वारा मापन के लिये γ से दिखाया गया है।चित्र 1A एवं 1B मे प्रदर्शित डिस्चार्ज नलिकायों को उपयोग मे लाते समय उनके भीतरी इलेक्ट्रोड को स्थायीकृत विद्युत सप्लाई के धनात्मक उच्च वोल्टेज से जोड़ दिया जाता था तथा दूसरे इलेक्ट्रोड को ग्राउन्ड कर दिया जाता था। डिस्चार्ज नलिका पर प्रकाश पड़ने तथा न पड़ने दोनो ही स्थितियों मे उच्च धनात्मक सिरे से जुड़े केैपिसिटर से छनकर निकलने वाली विद्युत धारा का मापन काउन्टर S मे एम्ल्पीफायर A द्वारा प्रवर्धित करने के बाद होता था।चित्र 1A, 1B, 1C मे प्रदर्शित डिस्चार्ज नलिकाओं मे उत्पन्न विद्युत धारा का गैल्वानोमीटर द्वारा मापन करते समय उनके इलेक्ट्रोड को कम फ्रिक्वेन्सी के ट्रान्सफार्मर से जोड़ दिया जाता था और सिल्वेनिया क्रिस्टल IN34 से रेक्टिफाइड धारा गैल्वानोमीटर मे प्रवाहित होती थी। आसिलोस्कोप द्वारा विद्युत धारा की शक्ल मापन के समय कार्बन के उचित प्रतिरोधक का उपयोग करके उसके तरंग की आकृति तथा कला को सन्तुलित रखा जाता था।
         प्रकाश की उपस्थिति मे मापित विद्युत धारा iL तथा प्रकाश की अनुपस्थिति मे मापित धारा iD होने पर जोशी प्रभाव का मान Δi = iL- iD से प्रदर्शित किया जाता था। जोशी प्रभाव को प्राप्त करने के लिये 15 सेन्टीमीटर लम्बी डिस्चार्ज नलिका मे 30 डिग्री सेन्टीग्रेड पर पारे के 120 मिलिमीटर दाब पर क्लोरीन गैस भरी गयी जिसे 30 सेन्टीमीटर की दूरी पर रखे गये 200 वाट तथा 220 वोल्ट वाले टंग्सटन फिलामेंट के बल्ब से प्रकाशित किया जा सकता था। डिस्चार्ज नलिका के दोनो इलेक्ट्रोड के बीच लगे विद्युत विभव का मान 4 हजार वोल्ट से बढ़ाकर 8 हजार वोल्ट तक करने मे जोशी प्रभाव प्रदर्शित करने वाली विद्युत धारा Δi का मान पहले धनात्मक और बाद मे ऋणात्मक पाया गया।प्रकाश की सबसे कम तीव्रता के लिये जिस विद्युत विभव पर जोशी प्रभाव धनत्मक से ऋणात्मक होता था उसे ‘प्रतिलोमन विभव’ Vi का नाम दिया गया। डिस्चार्ज नलिका पर लगे विद्युत विभव को बढ़ाने पर प्रकाश की सबसे कम तीव्रता के लिये एक ऐसी स्थिति आती थी जिसमे प्रकाश की उपस्थिति मे नलिका मे डिस्चार्ज होता था और ज्योंही नलिका पर प्रकाश पड़ना बन्द होता था त्योंही डिस्चार्ज रूक जाता था।यह विभव Vm प्रतिलोमन विभव Vi से कम होता था।यह भी देखा गया कि अगर डिस्चार्ज नलिका पर लगे विद्युत विभव का मान Vm और Vi के बीच स्थिर रखते हुए उस पर पड़ने वाले प्रकाश की तीव्रता मे परिवर्तन किया जाये तो विद्युत धारा Δi मे धनात्मक से ऋणात्मक या इसके विपरीत बदलाव पाया जाता था।इन प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया कि कुछ खास परिस्थितियों मे बिना बाहरी प्रकाश की उपस्थिति के नलिका के दोनो इलेक्ट्रोड के बीच विद्युत विभव विद्यमान होने के बावजूद भी उसमे डिस्चार्ज नही संभव था।
1950 तथा 1960 के दशक में बहुत से वैज्ञानिकों ने जोशी प्रभाव पर कई प्रकार के योगदान किये [3-8] मगर धनात्मक एवं ऋणात्मक जोशी प्रभाव के दृष्टिकोण से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर खस्तगीर की प्रयोगशाला का कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है [4]।इस कार्य मे प्रयुक्त उपकरण चित्र 3 में दिखाया गया है जहां चित्र 1 में प्रदर्शित डिस्चार्ज नलिका C का प्रयोग हुआ है जिसमे केवल दो बाहृय इलेक्ट्रोड 8.5 सेन्टीमीटर की दूरी पर लगे हैं।डिस्चार्ज नलिका की लंबाई 15 सेन्टीमीटर तथा व्यास 1.8 सेन्टीमीटर था और उसमे रखी आयोडिन गैस का 40 डिग्री सेन्टीग्रेड तापक्रम पर दाब 3 मिलिमीटर था।  
   
चित्र 3  बाहरी इलेक्ट्रोड वाली डिस्चार्ज नलिका में उच्च ए सी वोल्टज पर गैल्वानोमीटर एवं आसिलोस्कोप द्वारा जोशी प्रभाव मापन में प्रयुक्त उपकरणः              डिस्च्चर्ज नलिका (D) वोल्टेज परिवर्तक (K) वोल्टमीटर (V) उच्च वोल्टेज ए एफ ट्रान्सफार्मर (T1) डिस्च्चार्ज विद्युत धारा मापन के लिए ए एफ ट्रान्सफार्मर (T2) वाल्व अथवा जर्मेनियम क्रिस्टल डिटेक्टर (DET) गैल्वानोमीटर (G)         

           
        चित्र 4 जोशी प्रभाव मे विद्युत विभव पर आश्रित धनात्मक एवं ऋणात्मक विद्युत धारा Δi

प्रोफेसर खस्तगीर एवं सेठी के प्रयोग में मापी गयी विद्युत धारा iL, iD.  एवं जोशी प्रभाव के कारण विद्युत धारा में परिवर्तन Δi = iL- iD  कों चित्र 4 मे दिखाया गया है।इस प्रयोग में डिस्चार्ज वोल्टेज 1800 वोल्ट से उपर रखने पर कोई जोशी प्रभाव नही पाया गया 700 और 1800 वोल्ट के बीच ऋणात्मक जोशी प्रभाव तथा 500 और 700 वोल्ट के बीच धनात्मक जोशी प्रभाव पाया गया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उपरोक्त प्रयोग में आयोडिन वाष्प के लिये ‘प्रतिलोमन विभव’ Vi 700 वोल्ट है।

जोशी प्रभाव की विशेषताएॅ

जोशी प्रभाव विद्युतचुम्बकीय स्पेक्ट्रम की इन्फ्रारेड से लेकर गामा तरंगो तक सभी प्रकार की किरणों  के लिये संभव है।
जोशी प्रभाव का धनात्मक से ऋणात्मक परिवर्तन केवल बाह्य प्रकाश की तीव्रता बदलने से संभव है।
जोशी प्रभाव का मान बाह्य प्रकाश के उच्च विभव वाले इलेक्ट्रोड के पास पड़ने पर सर्वाधिक तथा निम्न विभव वाले इलेक्ट्रोड के पास पड़ने पर सबसे कम होता है।इन दोनो क्षेत्रों के बीच मे इसका मापन अत्यधिक कठिन है लेकिन एक्सरे एवं गामा रे के लिये इसे डिस्चार्ज नलिका के सभी भागों मे आसानी से मापा जा सकता है।
जोशी प्रभाव का मान तथा चिन्ह दोनो ही इलेक्ट्रोड की सतह की परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं जिससे यह धारणा बनती है कि यह प्रभाव गैस एवं इलेक्ट्रोड के अन्तरापृष्ठ पर भी निर्भर है।
डिस्चार्ज नलिका का तापक्रम बढ़ाने पर धनात्मक प्रभाव के मान मे बढ़ोतरी होती है मगर ऋणात्मक प्रभाव घट जाता है।

जोशी प्रभाव एवं लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी

सन 1960 मे लेजर के आविष्कार की वजह से प्रकाश भौतिकी के शोध क्षेत्र मे भारी उछाल देखने को मिला।लेसर प्रकाश का शुद्ध एकवर्णी होना तथा इसकी अत्यधिक तीव्रता उन क्षेत्रों के लिए वरदान साबित हुई जिनमे साधारण प्रकाश स्रोतों द्वारा प्रकाशजनित प्रभाव अतिशय क्षीण पाये गये थे।इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण भारतीय महान वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकट रामन का 1928 मे खोजा गया रामन प्रभाव है।रामन प्रभाव मे अणुओं से प्रकीर्णन के लिए एकवर्णी प्रकाश की जरूरत होती है और साधारण प्रकाश स्रोत से प्राप्त एकवर्णी प्रकाश की तीव्रता बहुत ही कम होती है।इसका फल यह हुआ कि अणुओं का रामन प्रकीर्णन स्पेक्ट्रम प्राप्त करने मे 24 से 72 घन्टे तक का समय लग जाता था। 1950 के दशक तक वैज्ञानिकों मे यह विचारधारा व्याप्त हो चली थी कि सैद्धांतिक तौर पर अपार संभावनायें होने के बावजूद रामन प्रभाव का उपयोग संभव नही था।आज लेजर प्रकाश द्वारा न केवल रामन स्पेक्ट्रम मात्र कुछ सेकेण्ड मे प्राप्त हो जाता है बल्कि रासायनिक क्रियाओं से लेकर जीव विज्ञान तथा सभी पकार की इण्डस्ट्री से लेकर सेना एवं राष्ट्रीय सुरक्षा तक का शायद ही कोई क्षेत्र हो जो इसका उपयोग न करता हो।लेजर के आविष्कार का असर जोशी प्रभाव की प्रगति पर भी पड़ा मगर दुर्भाग्यवश इस प्रगति के दौरान प्रोफेसर जोशी का नाम गुम हो गया और वह आप्टोगैल्वानिक प्रभाव से महिमामंडित हो गया।वैज्ञानिकों के भारी समूह मे स्पेक्ट्रोस्कोपी के विश्वविख्यात ज्ञाता आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जार्ज सीरीज अकेले व्यक्ति हैं जिन्होने इस संदर्भ मे सर्वप्रथम प्रोफेसर जोशी द्वारा किये गये शोध का उल्लेख किया है [9] । पेनींग ने 1928 में प्रयोगों के दौरान पाया था कि नियान एवं आर्गन गैस के मिश्रण वाली डिस्चार्ज नलिका में डिस्चार्ज प्रारंभ करने के लिये लगने वाला विद्युत विभव उस नलिका पर एक बाहरी नियान गैस की डिस्चार्ज नलिका से पड़ने वाले प्रकाश की उपस्थिति में बदल जाता था [10]। नियान एवं आर्गन गैस के मिश्रण वाली डिस्चार्ज नलिका में डिस्चार्ज प्रारंभ करने के लिये विद्युत विभव का यह अन्तर चित्र 5 में दिखाने की कोशिश की गयी है।इस प्रकार से प्रकाश जनित विद्युत डिस्चार्ज में परिवर्तन को ‘आप्टो गैलवानिक प्रभाव’ कहा जाता है।
           
चित्र  5 बायीं ओर की डिस्चार्ज नलिका से उत्सर्जित प्रकाश पडने की स्थिति में दाहिनी नलिका मे डिस्चार्ज प्रारंभ होने के लिये आवश्यक विद्युत विभव का मान बदल जाता है

        सन 1976 से 1978 के बीच अमेरिका के वाशिंग्टन शहर मे तब के नेशनल ब्यूरो आफ स्टैण्डर्डस (वर्तमान NIST) के वैज्ञानिकों ने डाई लेजर से विभिन्न तरंगदैघ्र्य के एकवर्णी प्रकाश के प्रभाव का गैसिय डिस्चार्ज पर सघन अध्ययन किया [11,12]।आधुनिक इलेक्ट्रानिक उपकरणों की मदद से डिस्चार्ज की विद्युत धारा मे होने वाले अति क्षीण परिवर्तन का मापन संभव हो सका।जोशी प्रभाव की ही भांति इन प्रयोगों मे भी धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनो ही तरह के परिवर्तन पाये गये।नियान आर्गन तथा अन्य गैसों के स्पेक्ट्रम से प्राप्त अपार आंकड़ों के आलोक मे विस्तृत विवेचना की गयी तथा इसे आप्टोगैल्वानिक प्रभाव जनित स्पेक्ट्रोस्कोपी का नाम दिया गया।डिस्चार्ज नलिका में स्थित गैसिय परमाणुओं  (या अणुओं)  द्वारा आप्टोगैल्वानिक प्रभाव में विद्युत धारा का बढ़ना अथवा घटना इस बात पर निर्भर करता है कि प्रकाश द्वारा इनके किस उर्जा स्तर में जनसंख्या बढ़ती अथवा घटती है। अब तक के अनुसन्धान से यह सुनिश्चित हो गया है कि प्रकाश पड़ने पर डिस्चार्ज नलिका की विद्युत धारा मे परिवर्तन होने का मुख्य कारण उसमे अपने विभिन्न उर्जा स्तरों मे उपस्थित परमाणुओं तथा अणुओं द्वारा आपतित प्रकाश का अवशोषण ही होता है।जब परमाणु या अणु उचित तरंगदैघ्र्य के प्रकाश को अवशोषित कर अपने किसी उच्च उर्जा स्तर मे पहॅुचता है तो वह इस अतिरिक्त उर्जा को एक अथवा अधिक फोटान के  उत्सर्जन द्वारा प्रकाश मे परिवर्तित कर देता है या पुनः प्रकाश के अवशोषण द्वारा अथवा अन्य कणों से टक्कर के कारण आयनित हो जाता है।आयनन की यह संभावना उक्त उच्च उर्जा स्तर की स्थिति एवं उसके जीवनकाल पर निर्भर करती है।अगर प्रकाश के अवशोषण के बाद वाले उर्जा स्तर से आयनन की दर परमाणु के पहले वाले उर्जा स्तर से आयनन की दर से अधिक होती है तो प्रकाश के कारण डिस्चार्ज विद्युत धारा मे धनात्मक तथा विपरीत स्थिति होने पर ऋणात्मक परिवर्तन होता है।
          लगातार तरंगदैघ्र्य बदलने की क्षमता वाले डाई लेजर के प्रयोग से उत्सर्जित प्रकाश के परमाणु द्वारा अवशोषण द्वारा  उसका संक्रमण उसके किसी भी निम्न उर्जा स्तर से उच्च उर्जा स्तर में संभव है।चित्र 6 में परमाणु की निम्नतम उर्जा स्तर तथा दो उच्च उर्जा स्तर प्रदर्शित किये गये हैं जिसमे उर्जा का मान दायीं ओर तथा प्रत्येक के परमाणु संख्या का घनत्व बायीं ओर दिखाया गया है।
               
                      
चित्र 6 परमाणु का आंशिक उर्जा स्तर चित्रण जहां उर्जा का मान (E)  तथा प्रत्येक उर्जा स्तर में तापीय साम्यावस्था में परमाणु संख्या का घनत्व (n) दिखाया गया है जहां उपर की ओर मुंह वाले तीर से अवशोषण एवं नीचे मुंह वाले तीर से उत्सर्जन द्वारा परमाणु का Ei और Ej के बीच संक्रमण प्रदर्शित किया गया है

          एकवर्णी लेजर प्रकाश की उपस्थिति में परमाणुओं के रेजोनेन्ट अवशोषण के चलते Ei एवं Ej उर्जा स्तरों का जनसंख्या घनत्व अचानक बदल जाता है जिसका समय के साथ बदलाव एक बहुलीकरण घटक K द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। आप्टोगैल्वानिक प्रभाव में डिस्चार्ज नलिका के प्लाज्मा की साम्यावस्था में हुए परिवर्तन को विद्युत सर्किट में जुड़े बाह्य अवरोधक R के दो सिरों के बीच उत्पन्न वोल्टज परिवर्तन ΔV द्वारा वापस लाया जाता है जहां K का मान 1 होता है। आप्टोगैल्वानिक प्रभाव द्वारा उत्पन्न इस वोल्टेज परिवर्तन को निम्नलिखत समीकरण से व्यक्त किया जा सकता है
                        ΔV = -βΣaiΔni                                                         (1)

जहां    β = (δK/δV)-1  >0  और  ai = δK/δni,  aj>ai  यदि  Ej>Ei

डिस्चार्ज की साम्यावस्था में सभी Δni=0 जिसकी वजह से ΔV=0 होता है।यदि यह मान लिया जावे कि डिस्चार्ज में स्थित परमाणुओं से क्षणिक एकवर्णी प्रकाश के फोटान के टक्कर का समय t=0 है तो Ei और Ej  के बीच परमाणुओं के प्रेरित संक्रमण की वजह से इनकी जनसंख्या घनत्व में परिवर्तन के बीच निम्नलिखित संबंध होते हैं।
Δni(0) = -Q(ni-nj),  Δni(0)= -Δnj(0) और Δnk =0 सभी अन्य उर्जा स्तरों के लिए जहां k≠i, j  वाला संबंध लागू होता है
यदि Ei और Ej के जीवनकाल क्रमशः τi और τj हों तो इन उर्जा स्तरों के जनसंख्या घनत्व में सामयिक परिवर्तन क्रमशः Δni(t)= Δni(0)exp(-t/τi) और Δnj(t)= Δnj(0)exp(-t/τj) होगा।अतः समीकरण 1 के आलोक में आप्टोगैल्वानिक प्रभाव द्वारा उत्पन्न वोल्टेज का सामयिक परिवर्तन निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता हैः
                  ΔV(t) = -βQ(ni-nj)[aj exp(-t/τj)-ai exp(-t/τi)]                    (2)       
          
उर्जा स्तर Ei तथा Ej के जीवनकाल में अन्तर के कारण दो प्रकार के आप्टोगैल्वानिक प्रभाव संभव हैं। दोनो उर्जा स्तरों का जीवनकाल बराबर (τi = τj = τ) होने की स्थिति में
               ΔV(t) = -βQ(ni-nj)[aj -ai] exp(-t/τ)= [-ve] exp(-t/τ)

क्योंकि aj > ai है अतः आप्टोगैल्वानिक प्रभाव के कारण विद्युत विभव (एवं धारा) में ऋणात्मक परिवर्तन होता है जो क्षणिक एकवर्णी लेजर के बंद होने पर अपने न्यूनतम मान पर पहुंचने के बाद धीरे धीरे शून्य की ओर बढ़ता है जैसा चित्र 7 में दिखाया गया है।यदि उर्जा स्तर Ei का जीवनकाल Ej की अपेक्षा बहुत अधिक हो (τi >> τj = τ) तो एकवर्णी लेजर प्रकाश पड़ने के तुरंत बाद तो विद्युत विभव (एवं धारा) में ऋणात्मक परिवर्तन होता है जो थोड़े समय के बाद शून्य होकर धनात्मक हो जाता है तथा अपने उच्चतम मान पर पहुंचने के बाद थीरे धीरे घटकर शून्य हो जाता है जैसा चित्र 7 में दिखाया गया है।इस प्रकार ऋणात्मक आप्टोगैल्वानिक प्रभाव तब देखा जाता है जब (t << τj) हो क्योंकि
                ΔV(t) = -βQ(ni-nj)[aj -ai] exp(-t/τj)= [-ve] exp(-t/τj)

और धनात्मक दिखने के लिये (t >> τi)  होना चाहिये क्योंकि तब
                ΔV(t) = -βQ(ni-nj)[0 -ai exp(-t/τi)] = [+ve] exp(-t/τi)

     
चित्र 7 क्षणिक लेजर प्रकाश के बाद ऋणात्मक (a) एवं धनात्मक (b) आप्टोगैल्वानिक प्रभाव का समय के साथ क्रमिक विकास

नियान तथा आर्गन गैस की लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी  

नियान गैस का आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम रिकार्ड करने के लिये प्रयोग की रूपरेखा चित्र 7 के माध्यम से दिखायी गयी है [13]   इसमें प्रयुक्त नियोडियम लेजर द्वारा पंपित कुछ नैनोसेकण्ड के क्षणिक डाई लेजर के उख्सर्जित एकवर्णी प्रकाश का विस्तार 500 से 540 नैनोमीटर (2000 से 18240 वेभनम्बर)  तक था। क्षणिक उत्पन्न आप्टोगैल्वानिक सिगनल को बाक्सकार मे भेजा जाता है जहां क्षणिक लेजर से उत्सर्जित प्रकाश को आधार बनाकर उसके रिकार्डिन्ग मे विलंब का समय स्थिर किया जाता है। बाक्सकार से उत्पन्न सिगनल द्वारा आप्टोगैल्वान्कि स्पेक्ट्रम रिकार्ड किया जाता है।

चित्र 8 हालो कैथोड वाले बल्ब के गैसिय डिस्चार्ज की लेजर आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी के लिये प्रयुक्त उपकरण

                             
चित्र 9 नियान परमाणु के उत्तेजित मेटास्टेबल उर्जा स्तर से 2 फोटान के अवशोषण द्वारा प्राप्त आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम की न्स् और न्द रिडबर्ग श्रृंखला की स्पेक्ट्रमी रेखाएं वेभनम्बर स्केल में प्रदर्शित

रिडबर्ग श्रृंखला की दोनो प्रकार की स्पेट्रमी रेखाओं के लिये एक ही साझा मेटास्टेबल निम्न उर्जा स्तर होता है जो नियान जैसे जटिल परमाणु के लिये प्रयुक्त j-l स्कीम में 3s[3/2]2 प्रदर्शित किया जाता है।लेजर जनित 2 फोटान अवशोषण मे शामिल सभी उच्च उर्जा स्तर का जीवनकाल निम्न उर्जा स्तर की अपेक्षा अधिक होता है जिस की वजह से चित्र 7a की भांति आप्टोगैल्वानिक प्रभाव ऋणात्मक होता है।
          आर्गन गैस के आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम की रिकार्डिग के लिये नियान गैस की ही भांति डाई लेजर प्रयुक्त किया गया  जिसका वेभनम्बर प्रसार 13520 से 16520 तक था [14]चित्र 10 मे प्रदर्शित आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम से स्पष्ट है कि कुछ रेखायें पतली तथा कुछ मोटी हैं।लेजर प्रकाश पड़ने के 2 माइक्रोसेकण्ड बाद की रिकार्डिग में पतली तथा मोटी दोनो प्रकार की स्पेट्रमी रेखाओं में ऋणात्मक आप्टोगैल्वानिक प्रभाव देखने को मिलता है जबकि 13 माइक्रोसेकण्ड बाद पतली रेखायें ऋणात्मक एवं मोटी धनात्मक आप्टोगैल्वानिक प्रभाव प्रदर्शित करती हैं।जैसा हम देख चुके हैं कि नियान के 2 फोटान आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम मे शामिल उच्च उर्जा स्तर का जीवनकाल अधिक होने के कारण चित्र 7a  के आलोक मे आप्टोगैल्वानिक प्रभाव ऋणात्मक होता है ठीक उसी प्रकार की स्थिति चित्र 10 में आर्गन की पतली स्पेट्रमी रेखाओं के लिये लागू होती है।चित्र 10 की मोटी स्पेट्रमी रेखाओं के लिये 2 माइक्रोसेकण्ड विमम्ब पर तो ऋणात्मक आप्टोगैल्वानिक प्रभाव देखने को मिलता है मगर 13 माइक्रोसेकण्ड बाद वह धनात्मक हो जाता है।अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि ये रेखायें एक फोटान का अवशोषण प्रदर्शित करती हैं जिनमे उच्च उर्जा स्तर का जीवनकाल निम्न उर्जा स्तर से कम होने के कारण चित्र 7b की भांति ऋणात्मक एवं धनात्मक दोनो ही प्रकार के आप्टोगैल्वानिक प्रभाव दिखायी पड़ते हैं।आर्गन परमाणु के आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम में एक और दो फोटान के अवशोषण को चित्र 10 द्वारा उर्जा स्तरों के बीच संक्रमण के रूप में प्रदर्शित किया गया है।
           
                                                                 
चित्र 10 डाई लेजर के क्षणिक प्रकाश के बाद अलग अलग समय पर आर्गन परमाणु का आप्टोगैल्वानिक स्पेक्ट्रम बायीं ओर प्रदर्शित है जिसमें उपर तथा बीच के स्पेक्ट्रम में लेजर प्रकाश रेखियध्रुवित तथा नीचे वाले स्पेक्ट्रम के लिये वृत्तीयध्रुवित किया गया।नीचे एवं बीच वाला स्पेक्ट्रम क्षणिक प्रकाश के 2 माइक्रोसेकण्ड बाद तथा उपर वाला 13 माइक्रोसेकण्ड बाद रिकार्ड किया गया।आर्गन परमाणु के आंशिक उर्जा स्तर दायीं ओर प्रदर्शित हैं जहां काले एकल तीर से स्पेक्ट्रम की मोटी एवं दोहरे तीर से पतली रेखाओं का संक्रमण दिखाया गया है  

प्रोफेसर जोशी का व्यक्तित्व

प्रोफेसर जोशी की गिनती अपने समय के भारत के श्रेष्ठतम वैज्ञानिकों मे थी तथा मालवीय जी को अपने विश्वविद्यालय मे अनुसन्धान की परम्परा की शुरूआत करने वाले इस प्रतिभावान प्रोफेसर पर बहुत गर्व था।भारतीय विज्ञान कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन मे विदेश से आने वाले विशिष्ठ वैज्ञानिकों को प्रोफेसर जोशी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे आदर के साथ बुलाते थे तथा अपने विद्यार्थियों को उनसे नवीनतम अनुसन्धानो के बारे मे विचार विमर्श के सुनहरे अवसर उपलब्ध कराते थे।साइंस कालेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर भी वे प्रिंसिपल की हैसियत से मुख्य अतिथि के रूप मे किसी महान वेैज्ञानिक को ही निमंत्रित करते थे।महाराष्ट्र एकाडमी ऑफ साइंसेज के संस्थापक सदस्य होने के साथ ही वे कई राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञान संस्थाओं से जुड़े थे।वे रायल इन्सिटीच्यूट ऑफ केमेस्ट्री लन्दन,  इन्डियन एकाडमी ऑफ साइन्सेज बंगलोर तथा इन्डियन नेशनल साइंस एकाडमी नई दिल्ली के फेलो थे। उन्हे 1943 मे भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के केमेस्ट्री प्रभाग का अध्यक्ष 1957 मे पी सी रे मेडल 1959 मे म्युनिख के अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस ऑन प्योर एण्ड एप्लाएड केमेस्ट्री के फिजिकल केमेस्ट्री प्रभाग का चेयरमैन तथा 1963 मे इन्डियन नेशनल साइंस एकाडमी के उपाध्यक्ष के सम्मान से नवाजा गया था।
प्रोफेसर जोशी के व्यक्तित्व की छाप उनके शिष्यों मे आज भी देखने को मिलती है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति तथा प्रोफेसर जोशी के सबसे प्रिय शिष्यों मे से एक प्रोफेसर बेनी माधव शुक्ल की राय मे उनके देव तुल्य व्यक्तित्व का वर्णन शब्दों मे नही व्यक्त किया जा सकता। प्रोफेसर शुक्ल कहते हैं कि उनके गुरू जिन्हे वे प्रेम मिश्रित सम्मान से ‘दाजू’  कहते थे आज भी उनके प्रेरणास्रोत हैं क्योंकि वैज्ञानिक प्रतिभा के साथ ही उनका व्यक्तित्व आदर्श रूप से संतुलित था।वे परम्परागत भारतीय संगीत मे गहरी रूचि रखने के साथ ही क्रिकेट के शौकीन थे और शाम के समय प्रयोगशाला मे इतना रम जाते थे कि डिनर खाना ही भूल जाते थे।
आज के प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिकों मे से एक प्रोफेसर सी एन आर राव 1953 मे एम एस सी केमेस्ट्री के विद्यार्थी थे तथा उन्हे प्रोफेसर जोशी के निर्देशन मे रीसर्च करने का अवसर मिला था। उनकी राय मे प्रोफेसर जोशी विज्ञान के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे। वे  अनुशासन के सख्त पक्षधर थे और समय से कार्य सम्पन्न करने तथा कराने मे विश्वास रखते थे।प्रोफेसर राव के अनुसार उनकी अपनी वैज्ञानिक सफलता का श्रेय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रसायन विभाग मे प्राप्त प्रारंभिक अनुसंधान की कला को जाता है।
  प्रोफेसर जोशी के शिष्यों के अलावा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे जिन लोगों को भी उन्हे देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ वे उनके चौड़े ललाट पर लटकते हुए चांदी से सफेद सुन्दर बालों और आभा युक्त मुखमंडल को याद कर आज भी रोमांचित हो उठते हैं।

आभार

इस लेख की प्रेरणा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र एवं प्रमुख उद्योगपति श्री दीनानाथ झुनझुनवाला से मिली।विश्वविद्यालय तथा इसके महान अध्यापकों के प्रति उनका आदर भाव देखकर मै जब लेखन सामग्री की खोज शुरू किया तो यह देखकर विस्मय हुआ कि प्रोफेसर जोशी के जीवन से संबंधित बहुत कुछ उपलब्ध नही है।प्रोफेसर बेनी माधव शुक्ल से वार्तालाप के द्वारा जोशी जी के बारे मे काफी प्रेरणादायक एवं रोचक प्रसंगों की जानकारी हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रसायन के प्रोफेसर एस के सेनगुप्ता ने प्रोफेसर जोशी के अनुसंधान से संबंधित लिखित सामग्री [15,16] उपलब्ध कराने मे बहुत सहयोग किया।

सन्दर्भ  (Reference)


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14. R.C. Sharma, T. Kundu and S.N. Thakur, Pramana 50 (1998) 419
15.Proceedings Symposium on ‘Recent Developments in Gas Discharge Phenomenon’ Commemorating 71st Birthday of Professor S.S. Joshi Nagpur University Journal (Science) November 13, 1970
16.Proceedings Symposium on ‘High Resolution Spectroscopic Methods in Chemistry’ A Tribute to Late Professor S.S. Joshi on his Birth Centenary, Banaras Hindu University February 19, 1999

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