Sunday, August 24, 2014

Laser Induced Breakdown Spectroscopy on Planet Mars

                                मंगल ग्रह पर स्पेक्ट्रोस्कोपी की दिलचस्प कहानी
                                   सूर्य नारायण ठाकुर.      काशी हिन्दू विश्वविद्यालय


गंगा जी के किनारे भारत के बिहार प्रदेश में और उत्तर प्रदेश के बलिया शहर के ठीक सामने स्थित हमारा गांव गंगौली कई माने में एक अनोखा गांव है।जिस मिडिल स्कूल में मैं सन 1949 में पढ़ा था वह आज भी एक मिडिल स्कूल ही है। दस हजार से अधिक जनसंख्या वाले इस गांव के लिए 5 वर्ष पहले तक ठीक ढंग की सड़क नही थी और दो वर्ष पहले तक बिजली नही थी। इस प्रकार की आधुनिक सुविधाओं से रहित इस गांव की अपनी विशेषताएं हैं। बिजली रहित इस गांव की कृत्रिम प्रकाश से अदूषित तारों से जगमगाती रातें मुझमें बरबस ही 60 वर्ष पूर्व की अपने बचपन की यादें ताजी कर देती हैं। रात में सोने के पहले चन्दामामा के विभिन्न रूपों से जुड़ी कहानियों के अलावा जगमगाते तारों के मनोहारी ज्यामितीय समूह मेरे मन में उनके बारे में जानकारी पाने की जीवन पर्यन्त रहने वाली जिज्ञासा पैदा कर गये। जब आगे की पढ़ाई के लिए 1950 के पूर्वाद्ध में मैं सारनाथ आया तो मुझे तारा और ग्रह का अन्तर नही मालूम था। पहली बार मैने मंगल ग्रह के बारे में सुना तथा अपने पिताजी की मदद से जो वहां इन्टरमीडिएट कालेज में भूगोल के अध्यापक थे. धीरे धीरे लाल रंग के साधारण से दिखने वाले इस आकाशीय पिंड को पहचानना सीख गया। उस समय यह चर्चा का विषय था कि मंगल ग्रह पर शक्तिशाली दूरबीनो की सहायता से नहरों की जानकारी प्राप्त हुई है और यह आकलन लगाया जा रहा था कि वे मंगल ग्रह पर रहने वाले बुद्धिमान मनुष्यों ने सिंचाई के लिये बनाया है। कुछ दिनो बाद एच जी वेल्स द्वारा लिखित ‘वार आफ द वरल्र्डस ’ नामक कल्पित कथा पढ़ने का मौका मिला जिसमें मंगल ग्रह के प्राणियों द्वारा इंगलैन्ड पर आक्रमण का वर्णन था्र। बड़ा होने पर यह भी चर्चा सुनने को मिली कि साम्यवादी लोगों को लाल का रंग होने के कारण मंगल ग्रह के प्रति विशेष आकर्षण था तथा  रूस के बहुत से लेखकों ने इस ग्रह पर आधरित उपन्यास भी लिखे थे।
विज्ञान और तकनीकी की प्रगति के चलते रूस और अमेरिका द्वारा पृथ्वी के चारो ओर चक्कर लगाने वाले स्पुतनिक और सैटलाइट छोड़े गये तथा दोनो देशों में चन्द्रमा तथा मंगल की सतह पर मनुष्य को पहुचाने की होड़ लग गयी। यद्यपि वैज्ञानिकों को पता था कि चन्द्रमा की सतह पर मानव जीवन नही संभव है मगर बहुत से लोग मंगल ग्रह पर मानव जीवन के लिये उचित परिस्थिति होने के प्रति आशावान थे। अमेरिका ने मंगल ग्रह के पर्यवेक्षण में विशेष सफलता अर्जित किया जब उसके द्वारा 1965 में छोड़ा गया मेरिनर 4 नामक अन्तरिक्षयान ने इस ग्रह के पास से गुजरते हुये इसकी सतह के बहुत से चित्र प्रसारित किये। इन चित्रों में साफ दिखता था कि मंगल की निर्जल सतह पर न तो नदियां हैं न समुद्र है और नही जीवन के अन्य कोई लक्षण हैं। मेरिनर 4 द्वारा लिये गये चित्रों में उसकी सतह के कुछ भाग ज्वालामुखी पहाड़ों से पटे पाये गये जिन्हे 19वीं सदी के अन्त में टेलीस्कोप से पर्यवेक्षण के आधार पर नहरें होने का अनुमान लगाया गया था। इस प्रकार मंगल वासियों द्वारा सिंचाई के लिये निर्मित नहरों के होने की कल्पना का अन्त हो गया।

             चित्र 1 मंगल ग्रह की सतह का 1965 में मेरिनर4 द्वारा लिया गया एक फोटो (नासा से साभार)

मंगल ग्रह का संक्षिप्त इतिहास


भारत के पौराणिक ग्रन्थों में मंगल को बहुत शुभ ग्रह एवं पृथ्वी का पुत्र माना गया है। भूमि से संबंन्ध होने की वजह से इसको भौम भी कहा जाता है। इसके लाल रंग के कारण इसे अंगारिका भी कहा जाता है और इसे युद्ध के देवता के रूप में पूजा जाता है। यह महज एक संयोग है कि 1857 में इस्ट इंडिया कंपनी की ब्रिटीश हुकुमत के खिलाफ भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बन्दूक की पहली गोली चलाने वाला सैनिक बलिया जिले का रहने वाला मंगल पांडे था। मंगल को सरेआम फांसी दिये जाने से भारतीय जनमानस में ऐसी चिनगारी फैली जो 1947 में स्वतंत्र होने तक कायम रही। रोम के लोग इसके लाल रंग को युद्ध में बहने वाले खून का प्रतीक मानते हुए इसे मार्स के नाम से युद्ध. आग़ एवं विनाश का देवता मानते हैं तथा ग्रीस के लोग इसे युद्ध का देवता कहते हैं।टेलीस्कोप से देखने पर मंगल लाल दिखता है तथा इसके स्पेक्ट्रम के विश्लेशण से यह सिद्ध हो गया है कि इसकी पूरी सतह आयरन आक्साइड की महीन धूल से ढकी है जिसे बवंडर मंगल के वायुमंडल में फैला देते हैं जो सूर्य के प्रकाश के लाल रंग को चारो ओर परावर्तित करता है।
       महान जर्मन खगोलशास्त्री केप्लर द्वारा सन 1609 में ग्रहों की गति के पहले दो नियम रात्रि के आकाश में मंगल की बदलती स्थित पर ही आधारित थे। मंगल की आकाशीय स्थिति का अचूक मापन खगोलशास्त्री टाइको ब्राहे द्वारा उपलब्ध था ओर  वैज्ञानिकों का विश्वास है कि अगर केप्लर ने किसी अन्य ग्रह की स्थिति के आंकणों का उपयोग किया होता तो वह सूर्य के चारो ओर ग्रहों की दीर्घवृत्ताकार कक्षाओं का सही आकलन नही कर पाता। पृथ्वी और मंगल की कुछ समानतायें टेबुल 1 मे दी गयी हैं।

                                                  टेबुल 1
            मंगल                                                       पृथ्वी
सौर मंडल का चौथा ग्रह                             सौर मंडल का तीसरा ग्रह
सूर्य से दूरी 1.52 खगोलीय यूनिट                  सूर्य से दूरी 1 खगोलीय यूनिट
धुरी पर एक चक्कर 24.6 घंटे में                    धुरी पर एक चक्कर 24 घंटे में
कक्षा में सूर्य का एक चक्कर 687 दिन में        कक्षा में सूर्य का एक चक्कर 365 दिन में
मंगल की धुरी का झुकाव 25.2 डिग्री               पृथ्वी की धुरी का झुकाव 23.4 डिग्री
तापक्रम 20 र्से -140 सेन्टीग्रेड तक                औसत भूमंडलीय तापक्रम 14.52 सेन्टीग्रेड


मंगल का अत्यंत हल्का वायुमंडल कार्बन डाइ आक्साइड का बना है तथा उसकी सतह पर वायुमंडलीय दबाव पृथ्वी की समुद्री सतह पर वायुमंडल के दबाव का केवल एक प्रतिशत है। मंगल की सतह बहुत कुछ पृथ्वी की तरह है जिसमें पर्वत श्रेणियां और बालू से ढके मैदान हैं। इसके सबसे बड़े पहाड़ ओलिम्पस की ऊंचाई 27 किलोमीटर तथा सबसे बड़ी घाटी  वैलेस मेरिनरीस 4000 किलोमीटर लंबी एवं 7 किलोमीटर गहरी है।
             
            चित्र 2  सूर्यास्त के समय मंगल के आकाश का पाथफाइन्डर द्वारा लिया गया फोटो (नासा से साभार)


       यद्यपि मंगल की बर्फीली ध्रुवीय टोपीयों को 17वीं सदी के मध्य में ही देखा जा चुका था मगर 1781 में विलियम हर्शेल ने सर्वप्रथम यह खोज की कि दोनो गोलारद्ध  के जाड़ों में इन बर्फीली टोपियों का विस्तार हो जाता है तथा गर्मियों में वे सिकुड़ जाती हैं। मंगल के प्रत्येक ध्रुव पर जाड़ों में अनवरत अंधेरा रहता है और इसकी सतह का तापक्रम इतना कम हो जाता है कि वायुमंडल की करीब 25 प्रतिशत कार्बन डाइ आक्साइड गैस बर्फीली ध्रुवीय टोपी पर ठोस कार्बन डाइ आक्साइड के रूप में जम जाती है जिसे ‘ड्राई आइस’ कहा जाता है। जब गर्मी के मौसम में ध्रुवों पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो ‘ड्राई आइस’ पुनः गैस के रूप में वायुमंडल में फैल जाती है। इस प्रक्रिया के चलते मंगल के ध्रुवीय क्षेत्रों के वायुमंडलीय दाब एवं संरचना में भारी वार्षिक परिवर्तन होते रहते हैं। चित्र 2 में प्रदर्शित सूर्य के आस पास का नीला रंग मंगल के वायुमंडल में स्थित धूल की वजह से है। वायुमंडल की यह धूल सूर्य के श्वेत प्रकाश के नीले रंग को अवशोषित कर लेती है तथा लाल रंग का प्रकीर्णन कर देती है जिससे मंगल के आकाश का ज्यादातर भाग लालिमा से युक्त दिखाई देता है।  सूर्य के श्वेत प्रकाश में नीले रंग का प्रकीर्णन लाल की अपेक्षा अधिक होता है और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के वक्त दिन की अपेक्षा किरणों को मंगल की धरती पर पहुंचने में वायुमंडल की सबसे अधिक मोटाई पार करनी होती है।वायुमंडल की मोटाई ज्यादा होने की वजह से मंगल के महीन धूलकणों की मात्रा भी बहुत बढ़ जाती है तथा अवशोषण के बावजूद लाल की अपेक्षा नीले रंग के अधिक प्रकीर्णन के चलते सूर्य के इर्द गिर्द का आसमान नीला दिखता है। मंगल पर सूर्योदय और सूर्यास्त के ये दृश्य पृथ्वी के सूर्योदय और सूर्यास्त के बिलकुल विपरीत हैं।
        पृथ्वी के एक चन्द्रमा के मुकाबले मंगल के फोबोस ओर डीमोस नाम के दो छोटे छोटे चन्द्रमा हैं जिनकी जानकारी 1877 में हो गयी थी। यह नामकरण ग्रीस के लोगों द्वारा उनके युद्ध के देवता के दो पुत्रों के नाम पर किया गया है। फोबोस डर का प्रतीक है तथा यह अपनी कक्षा में मंगल का एक चक्कर 7 घंटे में लगाता है जबकि आतंक का प्रतीक डीमोस यह काम करीब 31 घंटे में पूरा करता है।

मंगल ग्रह के वायुमंडल में स्थित प्राकृतिक लेजर  

अणुओं एवं परमाणुओं के स्पेक्ट्रम का अध्ययन मेरे रीसर्च का मुख्य विषय होने के कारण मंगल ग्रह के बारे में प्रकाश संबंधी जानकारी में मेरी दिलचस्पी रही है। सन 1976 में मंगल ग्रह के वायुमंडल से कार्बन डाई आक्साइड गैस के अणुओं द्वारा उत्सर्जित अप्रत्याशित किस्म का इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रम देखा गया। इसमें स्पेक्ट्रमी रेखाओं की तीव्रता गैस के अणुओं की ऊष्मीय साम्यावस्था में होने की अपेक्षा करीब एक अरब गुना अधिक पायी गयी। ऊष्मीय साम्यावस्था में अणुओं की घनत्व संख्या निम्न उर्जा स्तर में अधिक तथा उच्च  उर्जा स्तर में कम होती है। सन 1960 में सर्वप्रथम निर्मित तथा वर्तमान समय में अत्यन्त उपयोगी लेजर प्रकाश स्रोत इस सिद्धान्त पर आधरित है कि परमाणु या अणु की उच्च  उर्जा स्तर में उनकी संख्या निम्न उर्जा स्तर से अधिक होनी चाहिये। इस प्रकार कार्बन डाई आक्साइड द्वारा उत्सर्जित अप्रत्याशित तीव्रता वाली इन्फ्रारेड की स्पेक्ट्रमी रेखायें इस बात की द्योतक है कि मंगल ग्रह के वायुमंडल में अणुओं के कम्पन उर्जा स्तरों के बीच संक्रमण पर आधारित एक ‘प्राकृतिक लेजर’ विद्यमान है। इस जानकारी के बाद से इस लेजर का उपयोग मंगल ग्रह के वायुमंडल में तापक्रम एवं गैस के स्वरूप की जानकारी के लिये एक साधन के रूप में होने लगा है। सन 1997 में नासा के वैज्ञानिकों ने मंगल ग्रह पर भेजे जाने वाले ‘मार्स पाथफाइन्डर’ के उतरने की जगह का निरीक्षण करने वाली पृथ्वी पर स्थित टेलीस्कोप से यह जानकारी हासिल की कि प्राकृतिक इन्फ्रारेड लेजर का उदगम मंगल ग्रह के वायुमंडल की ऊपरी सतह से होता है। ‘प्राकृतिक लेजर’ का उदगम क्षेत्र चित्र 3 में दर्शाया गया है।


चित्र 3  मंगल ग्रह के क्राइस प्लैटिना (Chrys Platina) स्थल केन्द्र वाले प्रदर्शित वृत्त से  वायुमंडल द्वारा प्राकृतिक लेजर उत्सर्जित होता है (नासा से साभार)

अन्तरिक्षयान द्वारा मंगल ग्रह के पर्यवेक्षण


अमेरिका की नासा संस्था द्वारा मंगल ग्रह के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये वाइकिंग अन्तरिक्षयान नामक कार्यक्रम सबसे अधिक खर्चीला रहा जिस पर 1975 तक करीब एक अरब डालर की लागत आयी थी।यह बहुत सफल कार्यक्रम रहा और 1990 के मध्य तक मंगल के बारे में सबसे अधिक जानकारी इसी प्रोग्राम के तहत हुयी थी। पृथ्वी से मंगल ग्रह के लिये छोड़े गये प्रत्येक वाइकिंग अन्तरिक्षयान के दो मुख्य भाग आर्बिटर तथा लैन्डर होते थे। आर्बिटर की डिजाइन मंगल ग्रह की परिक्रमा करते हुए उसकी सतह की फोटोग्राफ लेने के लिये की गयी थी और लैन्डर की डिजाइन सतह पर उतर कर उसका अध्ययन करने के लिये की गयी थी। आर्बिटर का काम लैन्डर तथा पृथ्वी पर स्थित ‘नासा प्रयोगशाला’ के बीच संचारण सम्पर्क भी स्थापित करना था। वाइकिंग का मुख्य लक्ष्य प्रयोगों द्वारा मंगल की मिटृी में सूक्ष्म जीवाणुओं का पता लगाना था क्योंकि करीब 4 अरब वर्ष पहले से ही मंगल ग्रह पर बहुकोषीय जीवाणुओं के क्रमिक विकास के लिये अनुकूल परिस्थितियां समाप्त हो गयीं थीं। आर्बिटर द्वारा पृथ्वी पर भेजे गये शुरू के चित्रों में एक ज्वालामुखी पहाड़ का मुख मानव आकृति का भ्रम पैदा करता था जिससे यह अटकलबाजी होने लगी कि यह आकृति परग्रही प्राणियों द्वारा निर्मित हो सकती है जैसा चित्र 4 से स्पष्ट है।

     चित्र 4 वाइकिंग आर्बिटर द्वारा आदमी के मुखमंडल की आकृति वाला लिया गया फोटो (नासा से साभार) 

                     चित्र 5  वाइकिंग लैन्डर द्वारा मंगल की सतह से लिया गया फोटो (नासा से साभार)


लैन्डर द्वारा बाद के लिये गये फोटो ज्यादा यथार्थवादी थे जिससे मंगल की सतह तथा वायुमंडल की वास्तविक जानकारी प्राप्त करने में बहुत सफलता मिली। चित्र 5 में इसी प्रकार का एक फोटो दिखाया गया है जिसमें लैन्डर के स्वयं के फोटो के साथ ही मंगल की सतह पर फैले लाल रंग के पत्थर के टुकड़े तथा महीन धूल साफ दिखायी पड़ती है। लाल रंग की इसी धूल कणो के मंगल के वायुमंडल में भी लटके होने के कारण उसका आकाश गुलाबी रंग का दिखता है जो चित्र 2 में स्पष्ट रूप से प्रदर्शित है।

मंगल की जमीन पर चलने वाले रोवर की तीन पीढ़ियां (चित्र 6)


मार्स पाथफाइन्डर नाम से 1997 में मंगल ग्रह की जानकारी के लिये शुरू किया गया कार्यक्रम इस श्रेणी का पहला अन्तरिक्षयान था जिसमें उसकी सतह पर चलने में सक्षम रोवर गाड़ी का उपयोग किया गया था। पाथफाइन्डर यान में मंगल की सतह पर उतरने के स्थान पर स्थिर एक लैन्डर था जिसे कार्ल सैगन मेमोरियल स्टेशन का नाम दिया गया तथा एक अत्यन्त हल्की पहिये पर चलने वाले रोबट के समान सोजर्नर नाम की रोवर गाड़ी थी। वैज्ञानिक प्रयोगों के अलावा मार्स पाथफाइन्डर कार्यक्रम का उदेश्य अन्तरिक्षयान को मंगल की सतह पर बिना धक्का लगे उतारने की तकनीक का परीक्षण करना तथा स्वाचालित रोवर गाड़ी के मार्ग में आने वाले सतही अवरोधों से बचने की कला का विकास करना भी था।  सोजर्नर रोवर में लगे उपकरण मंगल के वायुमंडल. जलवायु. भूगर्भ. तथा उसकी मिटृी एवं चटृानों की संरचना संबन्धी जानकारी प्राप्त करने में सक्षम थे।
     नासा के वैज्ञानिकों ने मार्स पाथफाइन्डर के सफल अभियान से प्राप्त जानकारी के आधार पर अधिक परिष्कृत रोवर के निर्माण के कार्यक्रम आरम्भ कर दिये। परिणामस्वरूप जनवरी 2004 में मंगल के पर्यवेक्षण के लिये स्पिरीट एवं अपार्चुनिटी नामके जुड़वां रोवर प्रक्षेपित किये गये जिसमे स्पिरीट 2010 तक मंगल की सतह पर चलायमान था तथा अपार्चुनिटी आज भी कार्यरत है। मंगल के गुसेव नामक ज्वालामुखी के कारण बनी सूखी झील में स्पिरीट रोवर उतारा गया जिसका उदेश्य वहां पानी की खोज करना था। नुकीले पत्थरीली सतह पर चलने से पहियों में हुई क्षति के बावजूद स्पिरीट रोवर पास की 30 डिग्री ढाल वाली ‘कोलम्बिया’ पहाड़ी पर चढ़ने में सफल रहा तथा ज्वालामुखी के प्रभाव से निर्मित गर्म पानी के झरनों द्वारा पत्थरों में हुये परिवर्तन की जानकारी प्राप्त किया। नासा के वैज्ञानिक स्पिरीट की सोलर बैटरी को चार्ज करने के लिये उसे सूर्य के सामने पड़ने वाले ढाल पर चलाते हुये मंगल ग्रह की तीन कठोर शीत ऋतुओं तक कार्यरत रखने में सफल रहे। अन्त में मंगल की कठोर ठंढक के कारण स्पिरीट की बिजली की सर्किट ने काम करना बन्द कर दिया जिससे 2010 में पृथ्वी से उसका सम्पर्क बन्द हो गया। अपने 6 वर्ष के कार्यकाल में स्पिरीट ने मंगल की धरती पर 8 किलोमीटर की दूरी तय की तथा नासा द्वारा तय किये गये उदेश्य से 12 गुना अधिक सफलता प्राप्त की। स्पिरीट पृथ्वी के अलावा किसी अन्य ग्रह की पहाड़ी ढाल पर चढ़ने तथा उतरने का कीर्तिमान स्थापित करने वाला पहला रोवर था। स्पिरीट की खोजों में सबसे महत्वपूर्ण खोज ‘होम प्लेट’ नामक पठार पर पुरातन काल में गर्म पानी के झरने अथवा छेदों से निकलने वाली भाप के चिन्ह थे जो सूक्ष्म जीवियों के लिये उचित परिस्थिति का आभास देते थे। यह जानकारी तब मिली जब स्पिरीट के पहिये से निकली चमकदार सफेद मिटृी का रोवर पर स्थित स्पेक्ट्रोमीटर द्वारा विश्लेषण किये जाने पर उसमें शुद्ध सिलिका पाया गया। इससे यह अनुमान लगाया गया कि वर्तमान में मंगल का यह ठंढा तथा बेकार पठार पुरातन काल में गर्म पत्थरो और पानी के सम्पर्क से उत्पन्न ज्वालामुखी के विस्फोट वाला भयानक क्षेत्र रहा होगा।
      मंगल ग्रह के ‘ईगल क्रेटर’ नामक स्थल पर उतरने वाला अपार्चुनीटी रोवर 30 किलोमीटर से अधिक दूरी तय करते हुये आज भी क्रियाशील है। इसके लिये वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित सभी लक्ष्य जिसमें नम वातावरण का प्रमाण प्राप्त करना भी शामिल था 3 माह के भीतर ही पूरे हो गये थे। अपने अगले 4 वर्ष के कार्यकाल में अपार्चुनीटी ने ईगल क्रेटर से भी बड़ी एवं गहरी खाइयों का निरीक्षण किया तथा ईगल की ही भांति नम तथा सूखे वाले समान युगों के प्रमाण प्राप्त किये। नासा के वैज्ञानिकों ने 2008 में अपार्चुनीटी को 1 किलोमीटर व्यास वाले ‘विक्टोरिया क्रेटर’ से बाहर निकालकर इसे 22 किलोमीटर व्यास वाले ‘इन्डेवर क्रेटर’ की ओर अग्रसर किया जहां सूर्य का सामना करने वाले ‘ग्रीली हीवेन्स’ नामक ढाल पर इसे 2012 के मध्य तक मंगल की भयानक ठंढ से बचाने के लिये रखा गया था। ग्रीली हीवेन्स में अपार्चुनीटी की प्राथमिकता रेडियो संकेतों द्वारा यह पता लगाना है कि मंगल का भीतरी भाग ठोस है अथवा पिघला हुआ है।


चित्र 6 मंगल ग्रह की सतह पर चलने वाले तीन पीढ़ी के रोवरः सोर्जनर का डुप्लीकेट (सामने बायीं ओर) जो सबसे छोटा था, अपार्चुनीटी का डुप्लीकेट (बायीं ओर पीछे) जो मझौले कद का था तथा क्यूरियासीटी का डुप्लीकेट (दायीं ओर) जो सबसे बड़ा रहा (नासा से साभार)


मंगल यान ‘क्युरियासीटी रोवर’ और ‘लीब्स’ (LIBS)


मैं 6 अगस्त 2012 को प्रातः संयोगवश कैलिफोर्निया में था जब ‘क्युरियासीटी रोवर’ के मंगल ग्रह के ‘गेल क्र्रेटर’ में सफलता पूर्वक उतरने की सूचना प्रसारित की गयी थी। करीब 150 किलोमीटर व्यास वाला गेल क्र्रेटर मंगल ग्रह की भूमध्य रेखा के ठीक दक्षिण में स्थित है तथा इस रोवर का उदेश्य ‘माउन्ट शार्प‘ नामक पहाड़ के पास की भूगर्भीय परतों का अध्ययन करना है। क्युरियासीटी रोवर क्रो माउन्ट शार्प एवं गेल क्रेटर के उत्तरी किनारे के बीच मंगल की सतह की एक पतली एवं समतल पटृी पर उतारा गया है जिससे कड़ी जमीन पर करीब 4 सेन्टीमीटर प्रतिसेकन्ड की गति से चलने में सक्षम इस यान को अपनी निर्धारित महत्वपूर्ण खोजों के लिये बहुत दूर का सफर न तय करना पड़े। जैसा ऊपर बताया गया है कि मंगल ग्रह के कई अरब वर्ष के जीवनकाल में कभी उसके ठंढे. वायुरहित एवं सूखे रेगिस्तान अपेक्षाकृत गर्म एवं नम धरातल हुआ करते थे।लेकिन इस जानकारी का अभाव है कि मंगल में यह परिवर्तन बहुत कम समय में हुआ या इसमे धीरे धीरे कई अरब वर्ष लगे। धीमी गति से होने वाले परिवर्तन की स्थिति में मंगल पर पुरातन काल में व्यापक रूप से जीवधारियों के होने की संभावना बढ़ जाती है। क्युरियासीटी रोवर एक बड़ी जीप की तरह है इसकी लंबाई करीब 3 मीटर. चौड़ाई 2.7 मीटर. ऊंचाई 2.2 मीटर. तथा वजन करीब 900 किलोग्राम है। यह एक चलती फिरती प्रयोगशाला है और इसके द्वारा की गयी खोज मंगल के इतिहास के उपरोक्त अज्ञात पहलू को उजागर कर सकती है। क्युरियासीटी रोवर,. जिसे ‘मार्स साइन्स लेबोरटरी’ भी कहा जा रहा है,. द्वारा निम्नलिखत चार प्रकार के प्रयोग संपादित करने हैंः  
1 कम से कम एक नियत क्षेत्र में उपस्थित कार्बनिक यौगिक पदार्थ की विस्तृत सूची बनाना जिससे वहां पर जैविक संभावना का अनुमान लगाया जा सके
2 रोवर के उतरने वाले क्षेत्र में विभिन्न सतह के भूतत्व की विशेषता ज्ञात कर उस  प्रक्रिया का पता लगाना जिसके कारण वहां पर चटृान तथा मिटृी का निर्माण हुआ 
3 मंगल के वायुमंडल में लंबे समय के क्रमिक विकास से संबंधित घटनाओं का आकलन कर वर्तमान में पानी एवं कार्बन डाई आक्साइड के चक्र तथा वितरण की जानकारी द्वारा उन प्रक्रियाओं को समझना जिनके कारण पुराने समय में वहां जीवन के लिये अनुकूल परिस्थिति रही हो
4 मंगल की सतह पर पड़ने वाले सभी प्रकार के रेडियेशन की विशेषज्ञता ज्ञात करना जिसमे सूर्य द्वारा उत्सर्जित प्रोटान. सेकेन्डरी न्यूट्रान. तथा ब्रह्मांड से आने वाले अन्य रेडियेशन भी शामिल हैं

क्युरियासीटी रोवर पर स्थित प्रयोगशाला में भेजे गये 10 उपकरणों में से एक लेजर पर आधारित स्पेट्रोमीटर भी है जिसका काम मंगल पर पाये जाने वाले तत्वों का पता लगाना है। लेजर के माध्यम से स्पेक्ट्रम प्राप्त करने की इस विधा का नाम ‘लेजर इन्डूस्ड ब्रेकडाउन स्पेक्ट्रोस्कोपी’ (LIBS)  है। मुझे कुछ वर्ष पहले अपने एक भूतपूर्व शोध छात्र प्रोफेसर जगदीश सिंह द्वारा पदार्थ के विश्लेषण की इस बहु उपयोगी स्पेक्ट्रोस्कोपी पर काम करने की प्रेरणा मिली थी जिसका सिद्धान्त चित्र 7 द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता  सकता  है।        

चित्र 7  ‘लीब्स’ द्वारा स्पेक्ट्रम रिकार्ड करने का एक नमूना । लेजर एब्लेशन से लक्ष्य का एक सूक्ष्म भाग गर्मी के कारण प्लाज्मा बन जाता है तथा उसके परमाणु एवं अणु अपनी विशिष्ट स्पेक्ट्रमी रेखायें उत्सर्जित करते हैं


जब लेजर का तीव्र प्रकाश पुन्ज किसी पदार्थ से टकराता है तो अत्यधिक तापक्रम उत्पन्न होने के कारण उसका एक अति सूक्ष्म भाग प्लाज्मा में परिवर्तित हो जाता है तथा उसमें उपस्थित तत्वों के परमाणु अपना विशिष्ट प्रकाश उत्सर्जित करने लगते हैं। जब हम लेन्स के द्वारा लक्ष्य से उत्सर्जित प्रकाश को स्पेक्ट्रोमीटर से जुड़े आप्टीकल फाइबर पर फोकस करते हैं तो प्लाज्मा की लौ में उपस्थित सभी प्रकार के परमाणुओं एवं अणुओं की स्पेक्ट्रमी रेखायें एक साथ प्राप्त हो जाती हैं। लेजर आधारित इस स्पेक्ट्रम द्वारा कई मीटर दूर स्थित लक्ष्य में उपस्थित अवयवी तत्वों को ज्ञात किया जा सकता है।
       ऐसा लगता है कि गेल क्रेटर के उत्तरी किनारे तथा माउन्ट शार्प की तलहटी के बीच का क्षेत्र जहां रोवर उतारा गया है वहां से कभी तेज पानी की धारा बहा करती थी। रोवर के शक्तिशाली कैमरे से वहां की जमीन का लिया गया एक दृश्य चित्र 8 में दिखाया गया है। छोटे छोटे पत्थर के टुकड़े ठीक उसी प्रकार के लगते हैं जैसे कि पृथ्वी पर नदी की तलहटी में पड़ी बजरी दिखती है। क्युरियासिटी द्वारा लिये गये चित्रों से पत्थर के इन नन्हे टुकड़ों की आकृति एवं आकार की विस्तृत जानकारी मिली है जिसके आधार पर वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि पानी की धारा यहां कैसे बहती रही होगी। इस चित्र के माध्यम से पहली बार मंगल पर पानी के बहाव के कारण बजरी का फैलाव देखने को मिला है। बजरी के आकार का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिक यह अनुमान लगा रहे हैं कि पानी के प्रवाह की गति करीब 3 फीट प्रतिसेकन्ड रही होगी तथा उसकी गहराई आदमी के घुटने से लेकर कमर तक रही होगी। पत्थर के टुकड़ों का गोलाकार होना यह अहसास कराता है कि वे बहुत दूर तक पानी के साथ बहते रहे।
                  

चित्र 8  क्युरियासिटी के कैमरे से मंगल की सतह का एक दृश्य (बायें) तथा पृथ्वी पर पानी के तेज बहाव के कारण उसी प्रकार के पत्थर की बजरी से पटा क्षेत्र (दायें) (नासा से साभार)


पृथ्वी पर स्थित नासा केन्द्र के वैज्ञान्किों ने मंगल के वातावरण में क्युरियासिटी के लेजर और स्पेक्ट्रोमीटर की कार्यशीलता का परीक्षण करने के लिये रोवर के बाहर जमीन पर पडे एक पत्थर के टुकड़े (कोरोनेसन चित्र 9) की संरचना की जांच करने का निश्चय किया। इस इन्फ्रारेड लेजर की किरण कुछ नैनोसेकन्ड के स्पन्द के रूप में निकलती है मगर इसका पावर 10 लाख वाट के प्रकाश स्त्रोत के बराबर होता है। किसी लक्ष्य को भेदने के लिये लेजर स्पन्द का वैसे ही प्रयोग किया जाता है जैसे बन्दूक से निकली गोली का होता है।
                         
चित्र 9 क्युरियासिटी के अवतरण स्थल के पास मंगल की जमीन पर 7 सेन्टीमीटर का पत्थर जिसे ‘कोरोनेसन’ नाम दिया गया।19 अगस्त 2012 को सर्वप्रथम इस पत्थर का लेजर स्पार्क द्वारा स्पेक्ट्रम रिकार्ड किया गया


चित्र 10 आर्टिस्ट की कल्पना पर आधारित  लाल लेजर द्वारा मंगल की चटृान का स्पेक्ट्रम रिकार्ड करने की विधि (नासा से साभार)


इस शक्तिशाली लेजर स्पन्द के किसी पदार्थ से टकराने पर इतनी गर्मी उत्पन्न होती है कि उसकी सतह पर एक सूक्ष्म छेद हो जाता है तथा वहां का पदार्थ एक स्पार्क सरीखा दिखायी पड़ता है। स्पार्क के प्रकाश को रोवर की टेलीस्कोप द्वारा एकत्र करके आप्टिकल फाइबर के माध्यम से स्पेक्ट्रोमीटर में पहुंचा दिया जाता है।आप्टिकल फाइबर प्रकाश के संचार में वही काम करता है जो तांबे का तार बिजली के संचार में करता है। क्युरियासिटी में लगा स्पेट्रोमीटर दृश्य प्रकाश के साथ ही साथ अल्ट्रावायलेट एवं इन्फ्रारेड के अदृश्य प्रकाश का भी स्पेक्ट्रम रिकार्ड करने में सक्षम है तथा कुल मिलाकर यह 6144 स्पेट्रमी रेखायें एक साथ रिकार्ड कर सकता है।  चित्र 10 में लिब्स द्वारा मंगल ग्रह पर रोवर के बाहर स्थित किसी चटृान अथवा जमीन पर किसी अन्य लक्ष्य का स्पेक्ट्रम रिकार्ड करने का सिद्धांत प्रदर्शित किया गया है तथा चित्र 11 में कोरोनेसन नामक पत्थर के टुकड़े का स्पेक्ट्रम प्रस्तुत किया गया है। यह लेजर आधारित लिब्स स्पेक्ट्रम इस तकनीक के किसी अन्य ग्रह पर उपयोग होने का पहला उदाहरण है।


चित्र 11 मंगल की धरती पर पड़ पत्थर के टुकड़े ‘कोरोनेसन’ का ‘लिब्स’ स्पेक्ट्रम जहां पत्थर की संरचना करने वाले परमाणुओं की स्पेक्ट्रमी रेखायें स्पष्ट देखी जा सकती हैं (नासा से साभार)


स्पेक्ट्रम रिकार्ड करने के लिये 5 नैनोसेकन्ड अवधि के 30 लेजर स्पन्दों का उपयोग किया गया था तथा इस कार्य को पूरा करने में 10 सेकन्ड का समय लगा। इस प्रयोग का मकसद मंगल की मिटृी तथा चटृानों की संरचना जानने के लिये भेजे गये जटिल उपकरण की लेजर द्वारा लक्ष्य भेदने तथा टेलीस्कोप एवं स्पेक्ट्रोमीटर के कार्य निष्पादन की क्षमता का आकलन करना था। लिब्स की  स्पेक्ट्रमी रेखाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि सिलिकान. मैग्नीशियम. सोडियम. कैल्शियम. आयरन. तथा अल्यूमिनम आदि सभी तत्व पृथ्वी की ही भांति मंगल ग्रह पर भी मौजूद हैं। क्योंकि पत्थर की सतह पर मंगल के धूल की पतली परत जमी हो सकती है अतः वैज्ञानिक यह आकलन कर रहे हैं कि पत्थर की सतह तथा उसमें लेजर द्वारा हुये छेद से निकले पदार्थ की स्पेक्ट्रमी रेखाओं को किस भांति अलग किया जा सकता है।
        25 अगस्त 2012 को लेजर स्पार्क द्वारा पत्थर के आसपास धूल भरी जमीन के स्पेक्ट्रम रिकार्ड किये गये। रोवर से करीब 12 फीट की दूरी पर स्थित इस लक्ष्य को ‘बीची’ (चित्र 12) नाम दिया गया तथा इसके (क्रमशः बायें से दायें चलते हुये) 5 बिन्दुओ में से प्रत्येक पर 50 लेजर स्पन्द दागे गये जो चित्र 12 में स्पष्ट दिख रहे हैं। मिटृी में लेजर द्वारा बने छेदों का व्यास 2 से 4 मिलिमीटर के बीच था। प्रत्येक लेजर स्पन्द के स्पार्क का स्पेक्ट्रम रिकार्ड किया गया तथा यह पाया गया कि सभी छेदों से पहले लेजर स्पन्द द्वारा लिया गया स्पक्ट्रम तो एक जैसा था मगर बाद के लेजर स्पन्दों द्वारा लिये स्पेक्ट्रम भिन्न थे। इस प्रयोग से यह निष्कर्ष निकाला गया कि किसी लक्ष्य पर जमी धूल या भूरभूरे कणों को शक्तिशाली लेजर स्पन्द विस्थापित कर देते हैं।


चित्र 12  मंगल की मिटृी में निर्धारित लक्ष्य ‘बीची’ का कैमरे से लिया गया फोटो लेजर स्पन्दों के पड़ने के पहले  (बायीं ओर) तथा बाद में (दायीं ओर) (नासा से साभार)


     नासा के वैज्ञानिकों ने लेजर द्वारा धूल उड़ाने के आकलन की पुष्टि के लिये 2 सितम्बर 2012 (मंगल के 27वें दिन) को लक्ष्य के रूप में रोवर के बाहरी भाग में लगी ग्रेफाइट की पटृी का चुनाव किया जिसपर मंग्रल की धूल जम गयी थी। इस पटृी पर 50 लेजर स्पन्द दागे गये जिसमें पहले एवं आखिरी स्पन्द का स्पेक्ट्रम चित्र 13 में दिखाया गया है। इस चित्र में पहला लेजर स्पन्द केवल ग्रेफाइट पर जमी धूल का जबकि आखिरी स्पन्द केवल ग्रेफाइट का स्पेक्ट्रम प्रदर्शित करता है क्योंकि बीच में के दागे गये लेजर स्पन्दों के कारण गे्रफाइट की सतह पर जमी धूल उड़ जाती है। पहले लेजर स्पन्द के कारण धूल में मैन्शियम. सिलिकन. कैल्शियम. अल्युमिनम. तथा पोटैशियम की स्पेक्ट्रमी रेखायें स्पष्ट दिखती हैं जबकि कार्बन एवं आक्सिजन की रेखाओं की वजह मंगल के वायुमंडल की कार्बन डाई आक्साइड (CO2) है। पहले लेजर स्पन्द के कारण दिखने वाली हाइड्रोजन की स्पेक्ट्रमी रेखा की वजह वायुमंडल में पानी (H2O) या हाइड्रोक्सिल (OH)  की उपस्थिति हो सकती है।आखिरी लेजर स्पन्द का स्पेक्ट्रम शुद्ध ग्रेफाइट की वजह से है जिसमें केवल कार्बन और आक्सिजन की रेखायें स्पष्ट देखी जा सकती हैं। 


चित्र 13  ग्रेफाइट के उपर जमी मंगल की धूल के कुछ चुने हुये अल्ट्रावायलेट (बायें से दो), दृश्य (बीच का), एवं इन्फ्रारेड (दायें) स्पेक्ट्रम, जहां पहले लेजर स्पन्द की रेखायें नीले रंग से तथा आखिरी स्पन्द की लाल से प्रदर्शित की गयी हैं  (नासा से साभार)

लिब्स विधि से 13 दिसम्बर 2012 (मंगल के 125वें दिन) कोे ‘यलोनाइफ बे’ नामक क्षेत्र के ‘क्रेस्ट’ नामवाली चटृान तथा 23 दिसम्बर  (मंगल के 135वें दिन) को इसी क्षेत्र की ‘रापिटान’ नामक चटृान के स्पेक्ट्रम रिकार्ड किये गये। यहां टेबुल 1 के आलोक में बताना आवश्यक है कि मंगल का 1 दिन या सोल पृथ्वी के 1.025 दिन के बराबर होता है। इन दोनो स्पेक्ट्रम के कुछ भाग विश्लेषण के बाद चित्र 14 में प्रदर्शित है जहां ‘बासाल्ट’ का स्पेक्ट्रम भी तुलना के लिये दिखाया गया है जो मंगल के ज्वालामुखी से निकले पदार्थ का सूचक है। इन चटृानो में सल्फर, कैल्शियम, तथा हाइड्रोजन की स्पेक्ट्रमी रेखायें स्पष्ट देखी जा सकती हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि इन चटृानों में जल मिश्रित कैल्शियम सल्फेट हो सकता है जैसा कि पृथ्वी पर जीप्सम नामक खनिज में पाया जाता है।

चित्र 14 लिब्स द्वारा रिकार्ड किये दृश्य स्पेक्ट्रम के कुछ भाग जहां क्रेस्ट की स्पेक्ट्रमी रेखायें लाल रंग से रापिटान की नीले एवं बासाल्ट की काले से प्रदर्शित की गयी हैं  (नासा से साभार}  

        क्युरियासिटी ने मंगल के 439वें दिन या सोल  (30 अक्टूबर 2013) को गेल क्रेटर के इथाका नामक चटृान के लिब्स स्पेक्ट्रम रिकार्ड किये। इस चटृान का उपरी भाग चिकना एवं नीचे का हिस्सा खुरदरा दिखता है और लगता है कि यह नीचे तलछटी की चटृान है जो गेल क्रेटर की स्थानीय मिटृी से बाहर निकली हुयी है (चित्र 15)। इस क्षेत्र का स्पेक्ट्रम रिकार्ड करने मे मंगल ग्रह पर क्युरियासिटी द्वारा दागा गया 100000वां लेजर पल्स भी शामिल था (चित्र 16)।
 चित्र 15  इथाका नामक चटृान  का फोटो जहां काले रंग के आयत के भीतर लेजर सपन्द दागे गये  
(नासा से साभार)

चित्र 16 इथाका चटृान पर दागे गये तीर के 10 निशान जहां प्रत्येक पर 30 लेजर पल्स दागे गये थे जिसमें   एक लाखवां पल्स भी शामिल था  (नासा से साभार)


यद्यपि इथाका तलछटी का पत्थर है मगर इसकी स्पेक्ट्रमी रेखाओं  (चित्र 17) के आधार पर यह अनुमान लगता है कि तलछट के वे कण जिनसे यह पत्थर बना है उनके स्त्रोत आग्नेय पत्थर रहे होंगे जो पुरातन काल में पानी के साथ बहकर तलछटी के पत्थर बन गये।


                                       चित्र 17  इथाका चटृान का लिब्स स्पेट्रम  (नासा से साभार)  

उपसंहार  


भारत के स्वतंत्रता दिवस का दिन क्युरियासिटी के मंगल की धरती पर पहुंचने का 719वां सोल (मंगल का एक दिन) था क्योंकि सूर्य की परिक्रमा करने में इसे 687 दिन (704 सोल) लगते हैं। नासा की वेबसाइट पर उपलब्ध क्युरियासिटी के मंगल पर भ्रमण करने का नवीनतम मार्ग 692 सोल से लेकर 714 सोल तक चित्र 18 द्वारा प्रदर्शित किया गया है।यह रोवर कितनी धीमी गति से भ्रमण कर रहा है इसका अहसास कराने के लिये सोल 702, सोल 709, तथा सोल 713 तक के मार्गों के विस्तारित किये हुये फोटो चित्र 19 में दिखाये गये हैं


चित्र 18 अगस्त 2014 में क्युरियासिटी का मार्ग जहां पीले रंग की बिन्दी उसकी स्थिति दर्शाती हैं तथा साथ का पहला नम्बर उस दिन का सोल प्रदर्शित करता है (नासा से साभार)

चित्र 19  सोल 702 सोल 709 तथा सोल 713 को क्युरियासिटी की स्थिति एवं कुछ दिनों पहले तय किये गये मार्ग के इनलार्ज किये फोटो जहां प्रत्येक में नीचे  सफेद क्षैतिज रेखा 10 मीटर दर्शाते हुये (नासा से साभार) 


इस प्रकार हम देखते हैं कि क्युरियासिटी रोवर 2 वर्षों से अपने गंतव्य माउन्ट शार्प की ढाल की ओर धीमी गति से लगातार अग्रसर है जहां विभिन्न ऊंचाई पर स्थित चटृान एवं मिटृी के बारे मे वैसी ही जानकारी एकत्र करेगा जैसा अब तक गेल क्रेटर में करता रहा है। इस यान के अन्य उपकरण भी लिब्स की तरह धरती के नीचे तथा वायुमंडल की संरचना के बारे में विभिन्न प्रकार की जानकारी एकत्र कर रहे है। पृथ्वी पर स्थित अनेक प्रयोगशालाओं में विभिन्न प्रकार की विशेषज्ञता वाले सैकड़ो वैज्ञानिक और इंजिनीयर क्युरियासिटी से प्रति दिन उपलब्द्ध होने वाले आंकड़ों का लगातार विश्लेषण करने मे जुटे हैं। इस प्रकार के अध्ययन एवं चिन्तन का मुख्य उदेश्य दो महत्वपूर्ण सवालों का जबाब ढूढ़ना है कि क्या गेल क्रेटर के किसी क्षेत्र में कभी जीवन संभव था और क्या पृथ्वी से जाकर मनुष्य वहां पर जीवित रह सकता है। क्युरियासिटी न्यूक्लियर बैटरी से लैस है जिससे मंगल के भीषण जाड़ों में सूर्य का प्रकाश न होने पर भी इसके कुछ उपकरणों के लिये बिजली उपलब्ध रहेगी जबकि पहले के छोड़े गये दोनो प्रकार के रोवर पूर्ण रूप से सोलर बिजली पर निर्भर थे।इस लेख को पूरा करने के दौरान खुशखबरी मिली कि 2004 में छोड़ा गया अपार्चुनिटी रोवर 10 वर्ष के बाद भी मंगल की धरती पर क्रियाशील है।   
          
आभार   
                                                                        
इस लेख की अधिकतर बातें नासा की वेबसाइट पर अंग्रेजी में उपलब्ध है तथा तकनीकी शब्दों का हिन्दी अनुबाद शब्दकोष डाट काम से किया गया जिसके लिये मैं दोनो संस्थानो से जुड़े सृजनशील विद्वानों का आभारी हूं। विनीता, सुधीर, एवं संगीता के सहयोग के बिना यह लेख वर्तमान स्वरूप में संभव नही था जिनके स्नेह का यह प्रतीक है। 

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